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रे मन ! क्या यही ज़िन्दगी है ??

sahity kriti
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भीषण गरमी पड़ रही थी | सूर्य का प्रचंड ताप धरा को तवे सा तप्त कर रहा था| ऐसा लग रहा था मानो सूर्य अपनी सारी ऊष्मा को समेट कर पृथ्वी पर फैलाने के लिए अपना पूर्ण आधिपत्य जमाये हुए हो| कितनी भी विघ्न-बाधाएं क्यों ना आयें लेकिन समय का चक्र तो अबाध्य गति से दिन – रात चलता ही रहता है|आज की दौड़ती भागती जिन्दगी में हम इतना अधिक व्यस्त हो गए हैं कि अपने ही संसार से और आस -पास की दुनिया से प्रायः अनभिज्ञ से रहते हैं|
जिस कमरे में वह रहतीं थीं हवादार था सूर्य का पर्याप्त प्रकाश सर्वत्र विकीर्ण होता था| एक लम्बे अरसे से वह अस्वस्थ चल रहीं थीं| आँखों में मोतियाबिंद का दो बार आप्रेशन होने के बाद भी दृष्टि धुंधली थी……लगभग दो वर्ष से अस्थमा की शिकायत हो गयी थी…..पेट में ट्यूमर भी था…..ऐसी ही तमाम जानलेवा बीमारियों की वह शिकार हो गईं थीं…..| इसी तरह उन्होंने कमरे की चारदीवारी में अपनी जीवन संध्या का एक तिहाई हिस्सा काट दिया| इतनी अधिक शारीरिक व्याधियों के बावजूद भी अपने जीवन में वह आतंकित नहीं हुईं एक अडिग व स्थिर चित्त महिला थीं| वह तो एक ऐसी चट्टान थीं जो एक झरने के बीच रह कर पाषाणों के टकराने से कभी भी विचलित नहीं होती|
जब भी मैं उनके पास जाती थी पता नहीं क्यों मन घबराता था| एक दहशत सी थी मन में…… या फिर मेरा अहम् भाव ही था…… जो दोनों के बीच एक मज़बूत सी दीवार खड़ी कर रहा था| बार -बार उनके कमरे की ओर कदम बढाती……पर पीछे लौट जाती…..| आज पैतीस वर्ष बाद भी वह दिन याद है जब मैंने नई नवेली दुल्हन के रूप में ससुराल की दहलीज पर कदम रखा था….दो दिन ही बीते थे| क्या बुलंद आवाज थी…..एक ही बार आवाज देने पर शम्भू ….सावित्री ….कमला…सभी सेवादार उनकी सेवा में हाज़िर हो जाते थे और अगर आने में थोड़ा भी विलम्ब हुआ तो दूसरी आवाज में तो घर के खिड़की दरवाज़े सभी झनझना उठते थे…..आज उनकी आवाज में वह बुलंदी नहीं है जो पैतींस साल पहले थी| व्याधियों से त्रस्त….कृशकाय हो गईं हैं एकटक छत की ओर निहारतीं हैं…..एक मुरझाये हुए फूल की तरह पड़ी हुईं हैं जिसकी एक-एक पखुरी कांतिहीन होकर पृथ्वी पर गिर चुकी है उसके अन्दर की कुछ पंखुरी ही बची हैं जो मिट्टी में एकाकार होने की बाट जोह रहीं हैं|
टेलिफ़ोन की घंटी बज उठी रिसीवर उठाया –हेलो…… | ” हेलो… निर्मला, मैं भावना बोल रहीं हूँ बहुत दिनों से तुम्हारा कोई हालचाल नहीं मिला और न ही तुम आईं
……सब ठीक तो है?” ……. भावना ने कहा-“हाँ सब ठीक है बस ज़िन्दगी की गाड़ी चल रही है| कई बार सोचा कि तुमसे मिलूँ पर घर से निकल ही नहीं पाती हूँ|”सुनते ही निर्मला बोली – ” तो फिर आओ न आज|”…. कैसे आऊँ निर्मला, हम सभी सास जी की सेवा में लगे हुए हैं…..फिर भी उनके मन में यह बात घर कर गयी है कि उन्हें कोई पूछता ही नहीं है….हर समय गुमसुम सी रहती हैं पलंग पर लेटे-लेटे छत को देखती रहती हैं …कुछ समझ नहीं आता ऐसा क्या करें जिससे वह संतुष्ट हों…” भावना, तुम ही बताओ कोई उपाय|…….भावना– ” देखो निर्मला, यह तो उम्र ही ऐसी होती है जिसमें बुढ़ापा स्वयं ही एक बीमारी है और फिर जब शरीर व्याधियों का घर हो जाता है तो खुद से नफ़रत होने लगती है…..वह और नहीं जीना चाहता ….बची ज़िन्दगी का बोझ ढोता है….इस समय तो प्यार और सहानुभूति की जरूरत होती है निर्मला|” ….और आगे कहा ”वह तो एक ऐसा बूढ़ा वृक्ष हैं जिसकी जड़ें दूर-दूर तक फैली हुई हैं उसका अपना अस्तित्त्व सांसारिक तमस में समाप्त हो रहा है अब तो उसकी जड़ें ही सर्वत्र ज़मीन को मजबूती से जकड़े हुए है जो खोखली हो रहीं हैं उन्हें अब खाद ,पानी ,प्रकाश की आवश्यकता है …….|” शायद निर्मला को भावना की बातें अच्छी नहीं लग रहीं थी…. “मांजी उठ गईं हैं, भावना- बाद में बात करते हैं|” कह कर फोन रख दिया निर्मला ने |
आज न जाने क्यों मन में उथल-पुथल सी हो रही है…..उनसे बात करने को बहुत बेचैन हो रही हूँ ……..| कमरे में वह बिल्कुल अकेली थीं…..बार-बार करबटें बदल रहीं थीं……कुछ कराहाने की भी आवाज़ें सी आ रहीं थीं…..शायद कुछ घुटन सी हो रही हो …..खाँसी थी कि शांति से उन्हें आराम भी नहीं करने देती……बीच-बीच में गुहार भी लगातीं ………..” निर्मला…..अरे ओ निर्मला…….| ” मैं तेज कदमों से कमरे की ओर दौड़ी और उन्हें देख कर एक पल स्तब्ध सी रह गयी| वह बहुत व्यथित थीं……कुछ कहना चाह रहीं हों…..पर कह न पा रहीं थीं……दृष्टि धुंधली होने के कारण मुझे भी नहीं देख पा रहीं थीं……पुनः गुहार लगाई – “चारू……….बेटा……तू ही आ… जा… ,तनिक देर तो बैठ जा मेरे पास… यहाँ तो कोई सुनता ही नहीं…सभी अपने अपने में लगे हैं………मुझ पर क्या बीत रही है कोई नहीं जनता…यह भगवान् भी इतना निर्मोही क्यों हो गया है ज मुझे अपने पास भी नहीं बुलाता…….मैंने उनकी बातें अनसुनी कर दीं……..|
“क्या बात है माँजी, आप इतना अधिक परेशान क्यों होतीं हैं? चारू नहीं है कॉलेज गयी है जब घर आयेगी आपसे मिल लेगी…….मैंने उन्हें दवाई दी और चुपचाप सो जाइए” कह कर कमरे से बाहर निकल आई| कभी चारू को और कभी मुझे आवाज लगातीं……जब कोई उत्तर न मिलता तो एकदम शांत हो जातीं …….मैं पल भर जड़वत खड़ी रही…..मन आत्मग्लानि से भर गया…..क्यों कहा मैने यह सब?….क्यों नहीं बैठी उनके पास?…..पल दो पल बैठ कर उनकी बातों को सुनना चाहिए ऐसे हीऔर प्रश्नों के बोझ तले मैं दबी जा रही थी….मन द्रवित सा हो गया…. उस दिन दवाई देने के बाद भी सो न सकी…..बेचैनी कुछ ज्यादा ही बढ़ गयी थी….इस अवस्था में आदमी कितना निरीह व अशक्त हो जाता है….| ज़ज्बातों की आँधी चलने लगी…
दरवाज़े की घंटी बजी| विचारों का तारतम्य टूट गया| दरवाज़ा खोला, सामने चारू थी| मैने उसे प्रश्न सूचक दृष्टि से देखा और अपनी सफाई देती हुई बोली -“आज मेरा मन कॉलेज मे नहीं लग रहा था दादी से बातें करने की बहुत इच्छा हो रही थी इसलिए जल्दी चली आई|” आगे उसने कहा ” मम्मी, आपने दादी को सारी दवाएं तो दे दी हैं न|”…..हाँ सब कुछ दे दिया है अब तो तू आ गयी है स्वयं जाकर देख….न चैन से सोती हैं न बात करती हैं… नींद तो जैसे कोसों दूर भाग गयी है……निर्मला बोली|
“अरे बहू, तू…. किससे बातें कर रही है?…. क्या चारू है? ….उसे ज़रा मेरे पास भेज दे|”…..माँजी बोलीं| चारू उनकी आवाज सुनकर दौड़ पड़ी- “अभी आ रहीं हूँ दादी जी आप बिलकुल परेशान न हों|” जल्दी से जाकर अपनी दोनों बाहें दादी के गले में डाल कर उनसे लिपट गयी…. चारू का उनके पास जाना मानो उनके लिए अंधे को दो नयन मिलने वाली बात हो गयी….जैसे बरसों से खोई हुई अमानत उन्हें मिल गई हो….इस घर में एक चारू ही तो ऐसी है जो उनका काफी ध्यान रखती है…..अन्यथा तो इस वक्त वह एक ऐसी कटी पतंग के सामान थी जिसकी डोर जगत सृष्टा के हाथ में थी……….|
चारू अपने जेब खर्चे के लिए मिले रुपयों को बहुत कंजूसी से खर्च करती थी लेकिन अपनी दादी के लिए हमेशा कुछ न कुछ लाती रहती थी| इस बार भी सोफियाने रंग की एक साड़ी खरीदी थी जिसे लेकर वह उनके कमरे में गयी…..दादी के मुँह के पास लाकर खड़ी रही दोनों टकटकी बाँध कर एक दूसरे को कुछ पल तक देखती रहीं…..दोनों के नेत्रों से प्रेमाश्रुओं की वर्षा होने लगी…….कुछ संयत सी होकर चारू से बोलीं -देख चारू , मैं तो बस अब थोड़े ही दिन की मेहमान हूँ बिटिया ईश्वर के यहाँ से न जाने कब बुलावा आ जाए ….” शायद उन्हें भी अब अहसास हो गया था जीवन ज्योति बुझने वाली है| उन्होंने चारू का हाथ अपने हाथ में लेकर बहुत पुचकारा….एक रूमाल जिसमें वर्षों से संचित कुछ धन राशि थी शायद …..उसकी हथेली पर रख कर मुट्ठी बंद कर दी और बोलीं – बेटा तू पढ़-लिख कर नाम कमाना….तेरे दादा जी भी तुझे स्वर्ग से आशीर्वाद दे रहे होंगें…..एक तू ही तो है ख्याल रखने वाली बेटा तो दिन भर घर से बाहर रहता है और निर्मला बात ही नहीं करती है….राम जाने ऐसी क्या खोट है मुझ में जो मेरे पास तक कोई नहीं आता…… ” चारू का मन पीड़ा से कसकने लगा|उनके मुँह से अस्फुट शब्द निकल रहे थे…कभी बीच में ही आँखें बंद हो रहीं थी…..काफी कोशिशों के बाद भी नहीं बोल पा रहीं थीं…..तुम सब खूब खुश रहना………कभी कोई कष्ट न हों…….आख़िरी शब्द मुँह से नहीं निकल पा रहे थे ………धीरे-धीरे वह अब संज्ञा शून्य हो गईं थीं……|” दादी……दादी ……आपको नींद आ रही है क्या? चारू बार-बार पूछती पर उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया……वह तो अब चिर निद्रा में सो गईं थी….उसने उनके शरीर को कई बार हिलाया डुलाया….. देह तो गति शून्य हो गयी थी…..चारू की अंतर्वेदना नेत्रों से अश्रु की अविरल धारा के रूप में फूट पड़ी…….| जब उनका पार्थिव शरीर पुष्पों की शैया पर विश्राम कर रहा था , सभी पारिवारिक सदस्य व परिजन उनके साथ थे…….अंततः सांसारिक विधियों और रीति-रिवाज़ों के साथ उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया…..पूर्णतः परलोकवासी हो गईं…….शायद चारू और वह एक दूसरे के लिए ही बने हों…….एक ही धागे के दो सिरे हों……….|
उनके स्वर्ग वासी होने के बाद घर में एक रिक्तता का अहसास प्रति पल होता था……मन को धिक्कारती थी–तुझे किस पर इतना गर्व है……जो कुछ भी आज तेरे पास है वह कुछ भी तो तेरा नहीं है……….फिर कैसा अभिमान……..शून्य की ओर ताकने लगी……चन्द्रमा की शीतलता, तारावली की छिटकी चाँदनी धरा को धवल-सा कर रही थी….रात्रि का प्रथम प्रहार बीत चुका था……..|
विचारों की उधेड़-बुन में न जाने कब निद्रा के आगोश में आ गयी पता ही नहीं चला…….आँख जब खुली तो एक नई सुबह का उदय हो चुका था…..इस जीवन की आपा-धापी में पशु-पक्षी,मानव यहाँ तक कि प्रकृति भी , हर कोई अपने-अपने कार्य कलाप में व्यस्त है ……सभी अपनी-अपनी डोर अपने-अपने हाथ में पकड़े हुए है…..इंसान की अहमियत उसके जीवित रहने पर नहीं संसार से विदा लेने के बाद ही पता चलती है……यही बात शूल बनकर मुझे बराबर साल रही है…..मन पर एक प्रश्न चिह्न सा लग जाता है……..” क्या यही ज़िन्दगी है ???”

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