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बात करीब चार मास पूर्व की है एक पड़ोसी परिवार का बेटा जो ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ता है मेरे पास आया और बोला- आंटी, अगले हफ्ते मेरे स्कूल में वाद-विवाद प्रतियोगिता है और मुझे इस विषय पर विपक्ष में बोलना है कुछ प्वोइंट्स बता दीजिये विषय था -‘ बढ़ते वृद्धाश्रम घटते जीवन मूल्यों के प्रतीक हैं|’ उस समय तो मैंने उसे इस विषय से सम्बंधित नकारात्मकता पर थोड़ा विचार करते हुए कुछ बिन्दुओं पर बोलने के लिए कह दिया और वह चला गया| तत्पश्चात इस विषय पर मेरे मन में विचारों के आवागमन की आंधी सी चलने लगी……….पत्रिकाओं में भी बहुत पढ़ा था………उस समय कोई मंच नहीं था अपनी बात कहने के लिए… और फिर शांत हो गयी… इस जागरण मंच पर आने से आज इस आंधी ने फिर अपना रुख बदला तो निश्चित ही इस मंच के सभी बुद्धिजीवी व प्रबुद्ध पाठकों व लेखकों के साथ इस विषय के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं पर विचार बाँटना चाहूंगी|
कई अरसे पहले किसी पुस्तक में एक लघु कथा पढ़ी थी कितनी सही हो और कितना अंश विस्मृत हो गया हो कह नहीं सकती पर कुछ अंश स्मृति के एक कोने में आज भी अपनी पहचान बनाए हुए है जो शायद विषय के प्रसंग में बताना उचित ही होगा ……..|
दो बूढ़े पेड़ आपस में बातें कर रहे थे——एक ने कहा ” एक समय था जब सभी बच्चे धूप से बचने के लिए मेरे छाया में खेलने के लिए आते थे……. मैं उन्हें उस समय घनी छाया देता था ……फल देता था…., लकड़ियाँ और पत्तियां भी देता था……. जो उनके बहुत काम आते थे….. वे सब बहुत खुश होते थे ” दूसरे पेड़ ने कहा- ” हम सभी वही तो करते हैं जो तुमने किया……. “सुनकर पहले पेड़ ने कहा- लेकिन अब कोई नहीं आता……|” इतने में कुछ बच्चे उन पेडों के पास से गुजरे , उन्हें देख कर पहले पेड़ ने उनसे पूछा- “बच्चों, अब तुम मेरे पास खेलने क्यों नहीं आते हो?” एक बच्चा बोला -” अब तो तुम्हारे पास छाया नहीं है……फल नहीं है………और कुछ भी नहीं है देने को …….” यह सुनकर उसे दुःख हुआ कहा- “हाँ अब मेरे पास मेरी छाल ही बची है चाहो तो यह भी ले लो….मैं तो जर्जर हो चला हूँ “सुनकर बालक चुपचाप चला गया…….दूसरा पेड़ उसे सांत्वना देता हुआ बोला- ” चलो दोस्त, यह तो इनकी दुनिया है अपना शेष जीवन इसी जंगल में ही बिताते हैं……….”
अगर हम मानवीय जीवन पर दृष्टिपात करें तो लगता है कि यह लघु कथा शायद उन सभी वृद्धों की सच्ची दास्तान बयां करती है जिन्हें अपनी जीवन संध्या काल में वृद्धाश्रम की शरण लेनी पड़ती है क्योंकि ये शारीरिक रूप से सर्वथा अशक्त व असहाय हो चुके होते हैं, जो अपनी संतान से दूर एकाकी निराशापूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे होते हैं व आत्म सुरक्षा हेतु या फिर अपने आत्म-सम्मान की रक्षा हेतु अपनी संतान पर आश्रित नहीं होना चाहते| अपना शेष जीवन आज सभी सुविधा संपन्न इन आश्रमों के सेवादारों की छत्र-छाया में ही व्यतीत करते हैं जहाँ वे अपने नए साथियों के साथ शारीरिक या मानसिक व्यथा तथा अपने विचारों को बाँट सकते हैं…..निसंदेह आज ये वृद्धाश्रम आधुनिक सुविधा संपन्न होते हैंतथा उन्हें सुरक्षा प्रदान करते हैं पर अपनी उम्र के इस पड़ाव पर हमारे वृद्धों को ये आश्रम क्या भावात्मक सुरक्षा, आत्मीयता स्नेह दे सकते हैं जो अपनी संतान से और पारिवारिक सदस्यों से प्राप्त हो सकता है यह चिंतनीय व विचारणीय बिंदु है|
अब प्रश्न यह उठता है कि आज इन वृद्धाश्रमों की बढ़ती हुई संख्या भी क्या एक ऐसा घटक है जो हमारे जीवन मूल्यों को गिराने में अपनी एक अहम् भूमिका अदा कर रहा है? यदि विचार करें तो लगता है कि कहीं न कहीं हमारी भारतीय संस्कृति पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित हो रही है ,इसके साथ ही संयुक्त परिवारों के विघटन और एकल परिवारों की बाहुल्यता से हमारी मानवीय संवेदनाएं कहीं न कहीं मृतप्राय-सी हो गईं हैं……| आज के पारिदृश्य को देखते हुए सच्चाई तो यही है कि परिवार का हर सदस्य अपनी गतिविधियों में इतना अधिक राम गया है कि कोई भी किसी तरह से कहीं भी प्रतिबंधित नहीं होना चाहता है| युवा पीढ़ी व वृद्ध पीढ़ी के विचारों में सामंजस्य के लिए कोई स्थान ही नहीं रह गया है शायद इसलिए कि आज का युवा वर्ग कुछ अधिक ही योग्य और बुद्धिमान हो गया है| जेनरेशन गैप के कारण ही ये दूरियां बढ़ रहीं हों ( इस श्रेणी में सब नहीं हैं कुछ इसके अपवाद भी हैं ) केवल स्वादिष्ट भोजन ,अच्छे कपड़े और रहने की सुविधा देना और इन्हें वृद्धाश्रम में रख कर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली जाती है या विदेश में रहने वाली संतान भी वृद्धाश्रमों में रह रहे वृद्ध माता-पिता के लिए इन आश्रमों को अनुदान राशि भेजती रहती हैं जिससे उनके बुजुर्गों को पूर्णरूपेण सुरक्षा मिलती रहे और ये वृद्धाश्रम भी पलते बढ़ते रहें………….फलस्वरूप इनकी वृद्धि में और भी चार चाँद लग रहे हैं……….. | क्या कभी हमने इन बुजुर्गों की मानसिक वेदना का अनुभव किया है? ………. मन की गहराई तक झांकने की कोशिश की है………..नहीं न …..शायद यह मानसिक वेदना ही शारीरिक वेदना से कहीं अधिक घातक होती है …………
सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष है -भावनात्मक लगाव -आवश्यक नहीं है कि दो चार घंटे इनके साथ बिताएं जाएँ अपनी सभी गतिविधियों में से ५ मिनट यदि इनके साथ बाँट लिए जाएँ ,इनकी भावनाओं को समझ कर उनकी कद्र करें तो इनकी हार्दिक प्रसन्नता का कोई ठिकाना ही नहीं| क्यों न परिवार को हम एक ऐसी नाट्यशाला का रूप दें जहाँ हर पात्र की कार्य कुशलता उसके द्वारा निभाए जा रहे चरित्र में परलक्षित हो……….अपनी भारतीय संस्कृति भी संरक्षित रहे….तत्पश्चात न केवल हमारे जीवन मूल्यों का स्तर बढेगा बल्कि एक उच्च श्रेणी के अंतर्गत अपनी पहचान बना लेंगे और बढ़ते इन वृद्धाश्रमों की संख्या पर भी विराम लगेगा .. ….| काश ऐसा हो…..तब तो परिवार और समाज की तस्वीर ही…………..!!!!
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