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ये कैसी अग्नि …..! !

sahity kriti
sahity kriti
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ये भूख भी न जाने कैसी है !
भान होता….. जानी पहचानी सी है !
हर रोज़ दाह महसूस होती इसकी |
जाता हूँ हर रोज़ यहाँ वहाँ…..,
घूमता गली गली, कूँचे कूँचे ,
ढूँढता हूँ देखता हूँ……..,
न मिलता कहीं रोज़गार मुझे I
चोकर खाता, पानी पीता औ सो जाता ,
फिर भी न होती शांत दाह ये ,
काश ! ये भूखाग्नि न होती !
गरीब के मुख से आह न निकलती ,
रोटी के लिए लड़ाई न होती !
गर भूखाग्नि ‘प्रज्ज्वलित न होती…… ,
बन समिधा गरीब की आहुति उसमें न होती !
काश ! ये भूखाग्नि न होती !
इंसान को इंसान समझने में भूल न होती|
प्रतिस्पर्धा की होड़ न होती
ज़िंदगी में इतनी आपा धापी न होती ,
हर रोज़ की वारदात न होती ,
एकांगी बुजुर्गों की बलि न चढ़ती
काश !ये भूखाग्नि न होती !
धर्म के नाम पर झगड़े न होते ,
इंसान इंसान के खून का प्यासा न होता ,
आतंकवाद और अलगावबाद न होता |
देश की माटी रक्त रंजित न होती ,
बुझती लौ थम जाती ,
नारी दृगों में खून के आँसू न बहे होते !
फिर भी लगाए बैठा हूँ आस मन में अभी ,
यही कि— कभी तो कोई आयेगा मसीहा भी |
पर आज सोचता यही……
काश ! भूखाग्नि की दाह न होती !!
ये दाह न होती…………दाह न होती…….!!!

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