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जब हुआ वार मुझ पर…….! ( एक फूल की दास्ताँ )

sahity kriti
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बंद कली बनी जब एक फूल
लगा महकने गुलशन सब ओर !
सींचा माली ने श्रम स्वेद से मुझे
हुआ पूर्ण विकसित तब मैं |
करता रहा हास्य मैं चहुँ ओर
की क्रीड़ाएँ पवन अंक में अनेक |
ले रहा मस्त झोंके गुलशन में सब ओर
चहुँ दिसि किया विकीर्ण आह्लाद मैंने |
हो रही शोभित पल्लवित हर शाखा ऐसे ,
खड़ी हो दुशाला ओढ़े दुल्हन जैसे !
दरस दरस कर मुझको बगिया में ,
उठ रहीं हिलोरें आह्लादित मन मानस में |
कर स्पर्श फूलों को फूल गए मानव मन ,
फूल लेकर ‘अप्रैल फ़ूल’ बन गए क्या ‘ तुम ‘ ? ?
फूल ने ‘ फ़ूल’ १   को किया ‘फुल’ २ प्रफुल्लित !
करता अठखेलियाँ सर्वदा उद्यान में ,
किया मारुत ने हास्य लेकर अंक मुझे ,
आया घना झोंका पवन का कहीं से ,
हुआ वार मुझ पर वहीं से |
गिरी एक पंखुड़ी धरा पर ,
हुए शुष्क अवशेष सारे यहीं पर |
तन उजड़ा मन उजड़ा ,
उजड़ी जीवन की चाह मेरी ,
हुई उजाड़ बगिया भी माली की |
अस्त हुआ अस्तित्त्व मेरा यहीं ,
सौंदर्य विहीन जान कर,
रौंद न देना पथ पर मुझे कहीं |
फेंक देना मुझे उस राह पर……..
आता-जाता न हो कोई जहाँ पर |
हो जाऊँगा विलीन उसी माटी में
जन्म हुआ था जिससे …………
न होगा लेश मात्र भी क्लेश मुझे
खत्म हुई दास्ताँ अब जीवन की मेरे !
अब ……जीवन ……की………मेरे……..!!!

शब्दार्थ : फ़ूल१ == मूर्ख ,
फुल२ == पूर्णरूपेण
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