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है मेरी आरज़ुओं में ताकत इतनी कि
सब कुछ भूल जाएँ हम तुम यहीं |
फिर ना जाना इस जहां से कहीं
कुछ हम सुनाएँ कुछ तुम कहो अपनी |
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चाँद पर छा रहा मस्त यौवन
सितारें भी हो रहे फ़लक हूर है
जड़ चेतन खड़े रह गए मौन
बहारें मौसम की निशा भी पुरनूर है |
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आओ यहाँ फिर क्यों खड़े मझधार में
हम तुम मिल तराने प्रेम के गुनगुनाएं |
प्यार के सागर की बहती धार में
कुछ तुम बहो औ कुछ हम बहें |
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है बस यही आरज़ू कुछ हम सुनाएँ तो ,
कुछ तुम कहो अपनी है बस यही आरज़ू !
मेरी बहुत ही पुरानी डायरी के पन्नों पर लिखी हुई थीं ये पंक्तियाँ अरसों बाद उस डायरी के पन्ने खुले पंक्तियाँ पढ़ी और बस फिर सोचा क्यों न इस छोटी सी कविता को ही जा. जं. मं. पर पोस्ट कर दिया जाए ! बाल- बच्चे ,बड़े-बूढ़े , पति-पत्नी , युवक-युवती सभी बरबस ही इस प्यार की आरजुओं में खिंचे चले आते हैं…..!
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