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“प्रेम की आध्यात्मिकता और दीवानगी—valentine contest”

sahity kriti
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प्रेम जैसे इस मनो भाव पर कुछ भी लिखना मृग मरीचिका के सदृश ही लगता है जितना लिखा जाये अपूर्ण ही रहता है और सदैव रहेगा भी अधूरा ही | यह प्रेम शब्द एक ऐसा मनोभाव है जिसकी अनुभूति अवर्णनीय है | यही प्रेम सामाजिक मर्यादाओं का जब उल्लंघन कर अपनी देहरी को जब लांघता है तो अपनी सारी हदें पार कर जाता है और सर्वतः इसे भौतिक जगत की चकाचौंध अपने घेरे में ले लेती है और आज खुले आम हर जगह लगी हुईं हैं प्रेम की दुकानें | आज हम इसे क्या कहेंगे सच्चा प्यार , भक्ति , पूजा समर्पण , आध्यात्मिक भाव , दीवानापन या फिर कुछ और …….!
चाहें जो कहें हर किसी के लिए विभिन्न रूप और अलग-अलग विचार………! यदि हम विश्व-प्रसिद्ध युसूफ और जुलेखा के प्रेम प्रसंग पर दृष्टिपात करें तो यह आभास हो जाएगा की उनका प्रेम क्या मात्र शारीरिक आकर्षण था दीवानापन या आध्यात्मिकता ! थोडा सा देखते हैं इनकी प्रेम कहानी क्या थी…………! प्रेम से ही सम्बंधित मेरी एक पोस्ट ” प्रेम बहती नदी की धार है ” पर एक प्रतिक्रिया में यह कहानी सुनाने का निवेदन आया था……….!
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किसी-किसी पुरुष का व्यक्तित्त्व , स्वभाव व शारीरिक गठन इतना आकर्षक होता है कि स्त्रियाँ अपनी मान-मर्यादा का उल्लंघन कर बैठती हैं | ( आज भी होता है और धन संपत्ति भी शामिल है इसमें )ऐसे ही व्यक्तित्त्व का धनी था यूसुफ़ | बहुत सी रूपसियों का समूह उसके इर्द-गिर्द मंडराया करता था | पर वह इन सबसे बेखबर अपने बूढ़े पिता की सेवा में दत्तचित्त रहता था | उसके पिता एक दरगाह के मुजाविर थे ( मस्जिद में रह कर कार्य करते थे ) एक रईस पिता की बेटी तो आशिकी की सीमा को भी पार कर गयी थी और कई बार उससे प्रणय-निवेदन किया | यूसुफ़ ने बड़ी ही संजीदगी से उसे समझाते हुए कहा ‘ इस मिट्टी के शरीर के प्रति इतनी आसक्ति क्यों ? इस नश्वर शरीर के मोह में फंस कर अपने अनमोल जीवन को दांव पर लगाना मूर्खता है ( यहाँ पर हिन्दी जगत के सुप्रसिद्ध कवि संत गोस्वामी तुलसी दास और उनकी पत्नी के बारे में बहुत ही संक्षेप में बताना चाहूंगी कि तुलसी दास अपनी पत्नी रत्नावली को बहुत ही प्यार करते थे उनकी अनुपस्थिति में पत्नी अपने मायके चली गयी तो उसके वियोग से व्याकुल तुलसी दास भी दुरूह रास्ता पार करके पत्नी के पास पहुंच गए इनके इस कार्य से क्षुब्ध होकर रत्नावली ने कह दिया…….
अस्थि चर्ममय देह मम तामें ऐसी प्रीती , तैसी जो श्री राम महूँ होती न तो भवभीति| इस कथन ने तुलसी की आसक्ति को ख़त्म कर दिया और वे देह-गेह,धरा-धाम छोड़ राम भक्त हो गए ) तुलसी दास ने तो आसक्ति छोड़ दी लेकिन जुलेखा के प्रसंग में ऐसा नहीं था यौवानमत्त जुलेखा हार नहीं मानी , अपितु राज्य के शक्ति संपन्न अपनी उम्र से बहुत बड़े प्रधान मंत्री से शादी कर ली , वह प्रधानमंत्री अपनी रूपसी पत्नी की हर बात मानता था | जुलेखा ने यूसुफ़ की भरती अपने विशिष्ट सेवकों मे करा ली | इस तरह यूसुफ़ को दिन-रात अपने पास रहने को विवश कर दिया | जुलेखा कई वर्षों तक यूसुफ़ को अपने प्रेम जाल में फांसने का प्रयत्न करती रही लेकिन असफल रही | परेशान यूसुफ़ महल से भाग खडा हुआ और अपने पिता के पास खानकाह ( दरगाह ) में रहने लगा | इसी बीच प्रधान मंत्री की मृत्यु हो गयी | अब तो जुलेखा अपार संपत्ति की स्वामिनी बन गयी | उसने युसूफ के पिता को धन का लालच देकर दबाव डालने की कोशिश की–किसी भी तरह यूसुफ़ से उसका विवाह करा दें | पर यूसुफ़ को और फकीरों की तरह रहने वाले उस पिता को भौतिक संपत्ति से कोइ लगाव नहीं था |
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यूसुफ़ की याद में जुलेखा दिन-रात उदास रहती हमेशा रोते रहने से उसने अपनी आँखों की रोशनी खो दी और बीमार रहने लगी |
परिवार वालों ने उसे घर से बाहर कर दिया तथा सारी संपत्ति छीन ली |अंधी बीमार बेसहारा जुलेखा की दुर्दशा देख कर यूसुफ़ के पिता को दया आ गयी और उसे वे खानकाह में ले आये | एक कोठारी में उसके रहने की व्यवस्था कर दी उन्होंने जुलेखा को परामर्श दिया कि वह खुदा की इबादत में ही अपना अधक से अधिक समय लगाए | उसने वैसा ही किया और कुछ दिनों बाद जुलेखा की आँखों में रोशनी आ गयी | पिता ने यूसुफ़ को समझाया और जुलेखा के साथ शादी कर दी | पितृभक्त यूसुफ़ ने पिता की आज्ञा के सामने सर तो झुका दिया पर अनिच्छा से हुई इस शादी से उसे न तो प्रसन्नता हुई और न ही सुख |यूसुफ़ को पति-पत्नी संबंधों में कोई रूचि नहीं थी | वह आध्यात्मिक संबंधों का पुजारी था | थोड़े ही समय बाद उसकी मृत्यु हो गयी | प्रेम दीवानी जुलेखा इस वियोग को सहन न कर पाई और उसके भी प्राण-पखेरू उड़ गए !
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एक ओर आध्यात्मिकता में डूबा हुआ प्यार और दूसरी ओर अपने प्रेम को पाने का दीवानापन……! दोनों ही मार्ग दुरूह हैं
कठिन रास्ता तय करने के बाद प्यार मिला भी तो निभ नहीं पाया और बीच रास्ते में ही एक दूसरे को छोड़ कर आगे पीछे ऐसी राह पर पहुँच गए………….. जहाँ दोनों का प्यार एक साथ मिला इह लोक में नहीं तो उस लोक में…….. जुलेखा को अपना प्यार आखिरकार मिला लेकिन कब और कैसे.और कहाँ ……..?. यही है अभिन्न प्रेम का संघर्ष जहाँ कष्टों का अनंत सिलसिला जारी रहता है………! और छोड़ जाता है अनेकों प्रश्न आज उन लोगों के लिए जो अपनी मान मर्यादा को ताक पर रख करअपनी हदें पार कर देते हैं घृणित कार्य करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ते हैं………. और इस शब्द को धन-संपत्ति रूपी तराजू में तौला जाता है…………! इस तराजू में तोला हुआ प्यार क्या स्थायित्त्व पा सकता है………. ? शायद कदापि नहीं……..! इस प्रेम की तो कोई तराजू ही नहीं होनी चाहिए………यह तो स्वयं में ही एक बहुत बड़ी तराजू है…….प्रेम की आध्यात्मिकता और उसकी दीवानगी !!
सबसे बड़ी बात यह है कि प्रेम की अंतरंगता , गरिमा व इसके महान भाव को समझा जाए तभी इसके अंतरानंद की अनुभूति होती है और सदैव होती रहेगी……….. ! !

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