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“प्यार का घरौंदा और ये अस्तित्व-Valentine contest ”

sahity kriti
sahity kriti
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प्रथम भोर की अरुणाभ किरणें
झरोंखों से रुख करती जब इधर
करा जाता है आभास यह कि
हर रोज़ होता एक नया सवेरा है |
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अपने नव-नव रूपों में
नित नए रंग भर जाते तुम |
चाँद रोशन होता है अम्बर में
औ अस्तित्व तुम्हारा चांदनी में |
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बहती झील के अनमोल प्रस्तर हो
मंथन जीवन का करते जब हो |
मिल जाता वही जिसकी चाहत हो
तुम साधना औ जीवन का आधार हो |
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चलते-चलते पथ पर रंग बिखेरते
संग राही चले हो बहुत दूर से |
ये नज़रें जिन्हें ढूंढ रहीं हैं
वो ही तो तुम मेरी मंज़िल हो |
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मुद्दतें तो गुज़र गयी राहें तो अभी बाकी हैं
प्यार से बनाया यह घरौंदा तो बातें भी बाकी हैं !
मिल बैठ गुनगुनायेंगे जहाँ प्रेम गीत
होगा जिसमें चिर स्पंदन अभीत !!

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