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भाग्य की विडम्बना !

sahity kriti
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सूर्य की प्रचंडता से तप्त
धरा पर थी तेज़ दोपहरी !
जर्जर थी उसकी काठ सी काया
ज़िंदगी लदी सी थी बोझों तले
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तन ढका था न पांव
उदर पृष्ठ की समवेत काया थी !
क्षीण हुई मुख कान्ति
ज्यों लगा हो ग्रहण चाँद पर !
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कोई न था रक्षक
सभी थे उसके भक्षक
आँखों में न शर्म थी न लाज
जैसे विधाता ने रचा हो कोइ खिलौना इनका !
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बिजली सी कौंधी……!
प्रश्न का अंकुर हुआ प्रस्फुटित
कितने जन्मे अब तो `यहाँ’ असुर
कैसे बढ़ गया रेला इनका अपार ?
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कर रहे नित्य प्रति ये जघन्य दुराचार
सिसक-सिसक कर रोवें कलियाँ द्वार-द्वार
हो रहे नर संहार भारी
अबलाओं की भी हो रही दुर्दशा न्यारी!
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हृदय हुआ बड़ा आहत
किस किसके मन को दें राहत
कैसे करें इनको सुखी-शांत ?
भाग्य की कैसी है ये विडम्बना !
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हर गाँव , कस्बा, शहर , गली-गली
औ चौराहे पर बजता इनका ही बिगुल है
विगुलाघात से व्याकुल कब होगा
अब राम-सा कोई अवतार…….?
कब होगा कोई राम-सा अवतार ?????>
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