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कौन हो तुम….?

sahity kriti
sahity kriti
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कौन हो तुम ?
राह में रोड़ा बनकर खड़े हो |
मन में गहन संताप छिपाए
शुष्क संतप्त वीत राग-से
रात्रि अन्धकार में भी वर्षों से खड़े हो !
कौन हो तुम ?
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एक-एक कर कितने ही पथिक आये
देखकर अनदेखा कर गए
इस वीरान धरा पर
निर्जीव-से पड़े हो तुम
कौन हो तुम ?
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मई जून की तपती धरा पर
यूँ ही तप रहे हो |
कैक्टस भी तो होता है भला
जो रहता है हर दम हरा !
खुशबू नहीं तो क्या……..
कंटीला होने पर भी सबको हरता !
—————————————————-
कितने ही बादल आये , चले गए
कितने ही आंधी तूफ़ान आकर चले गए !
कितने ही राही तुम्हें ठुकराकर चले गए !
फिर अंतर ने महसूस किया—–
कितने निष्ठुर हो तुम
निरे ठूँठ ही हो…….ठूँठ ही हो……!!!!!

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