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कराहती जहाँ असंख्य अनमोल जिंदगियां……..!!!

sahity kriti
sahity kriti
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धन्य हुआ रे मानव तू !
जो पाई निर्मल देह तूने यह
किया जब प्रवेश आत्मा ने उसमें
करने लगा ऊँच-नीच जग में अनेक |
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करता है जीवन में पाप-पुण्य कितने तू
नहीं है लेखा-जोखा इसका यूं !
स्वार्थ की नदिया में ही डुबकी लगाता तू
क्यों न देखता आस-पास भी अपने
कराहती जहाँ असंख्य अनमोल जिंदगियां !
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रे मन ! करना कुछ ऐसा
रह जाए केवल नाम तेरा |
मत होना भयभीत तनिक भवसागर से !
हैं जीव जंतु इसमें ऐसे कि…..
करें विनाश जीवात्मा का निर्दयता से
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उठी अंतरात्मा से ध्वनि——–
आते हैं उतार-चढ़ाव जीवन में अनेक
करना न ध्वस्त इस जीवन-मंदिर को
निशाचरी माया को होने न देना हावी |
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मर्त्यलोक मालिन्य गर न मिले
न होना व्यथित तनिक मायावी जग में |
दिन ढला, गयी दोपहरी, आयी संध्या नज़दीक
पर दूर है मंजिल तुम्हारी अभी |
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जब आवे संध्या काल जीवन में
हो जाना आत्मलीन ब्रह्म जगत में |
कर लेना आत्मसात स्व को ईश में
होगा न द्वन्द कभी अन्तःकरण में |
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आवेगा प्रयाण काल जब
होगी वृष्टि अमृत की तब |
उठेगी ध्वनि अंतरात्मा से
हुई सृष्टि अब निहाल रे !
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धन्य हुआ रे मानव तू !
जो पाई निर्मल देह तूने
जग में धन्य हुआ तू !
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