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दिव्य प्रकाश का संबल ले………!!!

sahity kriti
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इधर आतंक उधर आतंक घोर आतंक !
सर्वत्र आतंक से हाहाकार हुई महानगरी
आज फिर बहीं खून की नदियाँ
रक्त रंजित देह को देख न हुआ ‘तू’ द्रवित !
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हे नीति नियंताओं ! लुप्त हुईं संवेदनाएं
क्या नहीं फट जाती छाती तुम्हारी ?
संध्या काल आतंकी गिरफ्त में हुई मुम्बई नगरी
बुझ गईं कितनी ही जीवन लौ |
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अन्य मूर्छित सी पड़ी जिंदगियां
पड़े रह गए देह ध्वंसावशेष धरा पर
क्या सुखा सकोगे कभी उन द्रवित नेत्रों को
जिनकी गोदें, मांगें हुई सूनी रिक्त हुई झोली ?
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खोया बागवान उजड़ा गुलशन उजड़ी धरा सारी
करुण चीत्कार में लिपटे लोग बन गए थे मूक दर्शक
निमिष नयन भी हुए विचलित रोम-रोम भी हो उठा व्यथित
दिव्य प्रकाश का संबल ले ……………….!
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‘ कर्मन्याधिकारास्ते मा फलेषु कदाचन ‘ का सर्वत्र अलख जगा !!
उठ रे मन ! असाध्य को साध्य कर दिखा ! !!

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