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‘ जूता और टोपी ‘ एक पदस्थ तो दूसरी शिरस्थ ! और दोनों ही सहमित्र हमारे जीवन में अपनी-अपनी अहम् भूमिका का निर्वाह करते हुए विराजमान हैं ! जूता जहाँ शिशु, बालक , बालिका वृद्ध , महिला ,पुरुष आदि सभी के पैरों में शोभायमान है उसी तरह आजकल टोपी भी शिशु से लेकर सभी के सिर पर शोभायमान है अपने शीर्ष स्थान पर आसीन है | या फिर हम यों कह सकते हैं कि आजकल दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं ! अब आप सबके हृदय में एक प्रश्न की लहर अवश्य ही तरंगित हो रही होगी…….भला जूता और टोपी का कैसा साथ ! लेकिन मैं कहती हूँ कि साथ है……क्योंकि कभी जूता टोपी का स्थान ले लेता है तो कभी टोपी जूते का स्थान…… कैसे ? यह मैं आगे बताऊंगी , फ़िलहाल तो थोडा बहुत परिचय देने का प्रयत्न करती हूँ…….|
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वस्तुतः टोपी का प्रयोग ठंड, सर्दी व धूप से बचाव के लिए , किसी भी पूजा स्थल पर देवताओं को सम्मान देने के लिए, खेल के मैदान में क्रिकेट के खिलाडी के (कोई भी खेल सम्बन्धी अन्य खिलाड़ी के लिए क्रीडा क्षेत्र में ) सिर के हताहत होने से बचाव के लिए किया जाता है या फिर आज की फैशनपरस्त पीढ़ी फैशन के नाते तरह तरह की टोपियों का प्रयोग करती है…. जैसे कि गांधी टोपी , नेहरू टोपी , गोल टोपी , खरगोश टोपी…फ़िलहाल तो मुझे इतने ही नाम पता हैं अगर और नाम होंगे भी तो मैं उनसे अनभिज्ञ हूँ अगर आप लोगों को पता हों तो कृपया सुझाएँ……इन टोपियों का प्रयोग हर आयु वर्ग का प्राणी करता है…..
वैसे तो ये सदैव अपने शीर्ष स्थान पर आसीन रहती हैं……लेकिन यदा-कदा अपने शीर्ष स्थान से उतरकर जूतों के स्थान पर आ जाती हैं……और जब ये जूतों के स्थान पर आती हैं तो लोगों की प्रतिष्ठा पर प्रश्नचिह्न लग जाता है……( विवाह के शुभ अवसर पर दहेज़ के लोभी भेड़ियों की मांग पूरी करने में असमर्थ कन्या का पिता जब अपनी पगड़ी या टोपी वर के पिता के पैरों पर रख देता है ……..अर्थात वह अपनी इज्ज़त ,प्रतिष्ठा वर पक्ष के हाथों में समर्पित कर देता है )……..यहाँ कहना चाहूंगी कि कन्या के पिता की टोपी सदैव ऊंची ही रहे……….
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जूता पैरों में पहनने की एक ऐसी वस्तु है जिसका उद्देश्य विभिन्न गतिविधियाँ करते समय मानव के पैरों की रक्षा करना और उसे आराम पहुँचाना है !
जूतों का प्रयोग सजावट की वस्तु, कीरिंग आदि रूप में भी किया जाता है | मध्य पूर्व, अफ्रीका के कुछ भाग, कोरिया, और थाईलैंड में किसी को जूते के तले दिखाना असभ्यता मानी जाती है भले ही चाहे पैर पर पैर रखने से ऐसा संयोगवश ही क्यों न हुआ हो ! इसके अतिरिक्त थाईलैंड में पैर , मोज़े ,या जूते का किसी के सिर से छू जाना या फिर सिर पर रखना और भारत में ( मेरी दृष्टि में केवल थाईलेंड , भारत व कुछ अल्प देशों में ही नहीं बल्कि अधिकाँश सभी देशों में ) किसी व्यक्ति पर जूता फेंकना एक बहुत बड़ा अपमान समझा जाता है | मार के सन्दर्भ में जूते अपनी अहम् भूमिका निभाते हैं……… जूतों से पिटाई करना तो आम बात है ! यदि किसी को चोरी का दंड देना है बस जड़ दिए दो चार जूते……..जूतों का माला के रूप में भी प्रयोग किया जाता है……और यह माला किसी भी आरोपी या फिर जघन्य अपराध करने वाले अपराधियों के गले का हार बनती है…….इसी सन्दर्भ में अपने विद्यार्थी जीवन का एक बार का वाकया बताती हूँ जिसकी कुछ धुंधली स्मृति आज भी मस्तिष्क के किसी एक कोने में विद्यमान है…..एक प्रौढ़ावस्था वाले व्यक्ति को जिसके मुख पर कालिख पुती हुई और गले में फटे पुराने जूतों की माला पड़ी हुई थी लोगों ने एक गधे पर बैठाया हुआ था…..उसके साथ-साथ आगे पीछे शहर के असंख्य लोगों की भीड़ और बीच में गधे की सवारी.को ……..’ जिंदाबाद ‘ की जगह ‘ मुर्दाबाद ‘ ( उस व्यक्ति सम्बन्धी और भी कई नारे जो इस समय तक विस्मृत हो चुके हैं ) के नारों की ज़ोरदार असंख्य ध्वनियों के साथ पूरे शहर में घुमाया जा रहा था…….अब ज्यादा बताने की आवश्यकता नहीं समझती कि जूतों की मालाधारी इस सवारी का जुर्म क्या था………!
साहित्य में जूतों पर एक कहावत भी हैं जैसे कि….. भीगे-भीगे जूते मारना……| इन जूतों ने परी कथाओं सिंड्रेला , द वंडरफुल विजार्ड ऑफ़ ओज़ तथा रेड शूज़ में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है |
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अब इस तरह टोपी और जूता अपने-अपने स्थान पर बहुत ही महत्त्वपूर्ण वस्तुएं हैं जिनका प्रयोग अपने पृथक-पृथक रूप में सदैव किया जाता रहा है…….
जितना जूतों का महत्त्व है उतना ही टोपी का भी……..बस अंतर केवल इतना है कि जूते पैरों की शोभा के प्रतीक हैं तो टोपी किसी के सिर की शोभा व प्रतिष्ठा की प्रतीक…..! तभी तो यह कहा गया है की ‘ टोपी ऊंची रहे…..! ‘ अर्थात ‘ जीवन में फलें फूलें……..मान प्रतिष्ठा रहे ! ‘ कई अरसे पहले मैंने किसी एक पत्रिका में हिंदी जगत के जाने-माने सुप्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य राम चन्द्र शुक्ल के बारे में महिलाओं की जूतियों से सम्बंधित एक प्रसंग पढ़ा था…..इस समय उस पत्रिका का नाम याद नहीं आ रहा है कि कौन सी थी लेकिन किसी पत्रिका से ही उद्धृत प्रसंग है मंच के पाठकों से अनुरोध है कि कृपया इस प्रसंग को अन्यथा न लें…..क्यों कि मेरे स्मृति पटल पर उस प्रसंग का मात्र कुछ अंश अंकित है जिसे मैं यहाँ इस आलेख के सन्दर्भ में प्रस्तुत कर रही हूँआचार्य पं० रामचंद्र शुक्ल अपने सिर पर टोपी लगाये हुए थे तभी एकबार एक भिखारी उनके सामने आ खड़ा हुआ और हाथ फैलाते हुए बोला ,” बाबू साहब की टोपी ऊँची रहे |” शुक्ल जी ने भिक्षा देते हुए उससे पूछा ,” अगर किसी औरत से भीख माँगनी हो तो क्या कहोगे ?”बेचारा भिखारी बड़े ही असमंजस में पड़ गया जब वह कुछ बोल न सका तब आचार्य शुक्ल ने स्वयं उसका समाधान करते हुए कहा,” कहना, मेम साहब की जूती ऊँची रहे |” साहित्यकार ने भी महिलाओं की जूतियों को भी उच्च दर्ज़ा दे डाला अब अंत में एक अनुत्तरित प्रश्न…….मेम साहब की जूती ऊंची……या साहब की टोपी ऊंची…….या फिर दोनों ही ऊंची……( जूते और टोपियों के बारे में बहुत कुछ पढ़ा था……सुना और देखा था पर जब आचार्य शुक्ल जी का प्रसंग पढ़ा तो मैं स्वयं को कुछ लिखने से न रोक सकी……..)और अब अनुत्तरित प्रश्न पर आप सबके विचार सादर आमंत्रित हैं………!! ( सभी चित्र नेट से साभार )
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