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एक पैबन्द

sahity kriti
sahity kriti
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हूँ सब भाषाओं की एक भाषा मैं
चाहत है अतुलनीय वात्सल्य की
माँ भारत की गोद में !
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किया श्रृंगार अलंकरणों का जीवन में
करते हैं रसपान सभी रसों का मेरे
पड़े पग जहाँ हुई माटी निहाल वहाँ
छोड़ी छाप भारत की जहाँ तहाँ |
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बनकर सेतु देश को कड़ियों से जोड़ती
खड़ी हूँ बनकर संतरी बहनों की
नहीं करती भंग कुल कानि
हूँ मैं एक पैबंद अम्बर सा
ढक जाएँ कलुषित जिससे ऐसा |
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पल रही हूँ छत्र छाया में भारत माता की
सौंधी-सौंधी गंध लेती देश की माटी की
हुआ उन्नत मस्तक मेरा जन्म हुआ जहाँ पर
हूँ सब भाषाओँ की एक भाषा मैं

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हिंदी दिवस के अवसर पर जागरण परिवार के सभी सदस्यों को व इस वैश्विक मंच के सभी ब्लॉगर साथियों को तथा अन्य सभी साहित्य प्रेमियों को मेरी ओर से हार्दिक शुभकामनायें !!!

अलका
 

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