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दासता की परिधि

sahity kriti
sahity kriti
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ऐसा है वह कि —
आकाश की ऊंचाइयों को छूना चाहता है
नहीं छू पाता है |
फिर पंख लगाकर उड़ना चाहता है
नहीं उड़ पाता है |
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नीचे ज़मीं पर गिरता है ,
सागर की गहराइयों से टकराता है ,
सिन्धु उर्मियाँ हलचल मचातीं हैं,
द्वन्द अंतर्द्वंद होते हैं |
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”सागर में डुबकी लगाने पर-
अनमोल रत्न मिलेंगे |
तट पर खड़े रहकर तो कंकड़ ही हाथ आयेंगे
और बालू में पैर धंस जायेंगे |”
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फिर अकस्मात ही शून्य में छलांग लगाता है
आकाश की बुलंदियों को छूता है |
सारा संसार उसके आगोश में समा जाता है ,
फिर इस ज़मीं पर पैर मज़बूती से रख लेता है |
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ऐसा है मानव कि वह—-
स्वयं ही अपनी दासता की परिधि से घिरा है
सदा ही घिरा रहता है दासता की परिधि से वह !

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