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अब मैं तृप्त हो गया……..!

sahity kriti
sahity kriti
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यह कहानी कुछ ऐसे वृद्धों की है जिनके प्रति बेटे व उसकी पत्नी का दृष्टिकोण स्वस्थ नहीं है उनकी दृष्टि में वे केवल एक ठूँठ सदृश ही हैं…..( हर परिवार में ऐसा नहीं हैं अपवाद सर्वत्र मिलते हैं ) एक ओर पौत्र व दादा जी का एक दूसरे के प्रति स्नेह……किसी बाहरी व्यक्ति द्वारा वृद्धों की बात का मान रखना और उनके जीवन के अंतिम संस्कार में भी साथ देना……निश्चित ही अनुकरणीय है….कही न कहीं भारतीय संस्कृति का परिचायक है……..! इस मौलिक कहानी के सभी पात्र काल्पनिक हैं….यदि घटना क्रम व पात्रों का सम्बन्ध कहीं भी किसी से है तो वह केवल मात्र संयोग ही है……..!

वर्मा जी ब्रह्म मुहूर्त में उठकर अपनी पत्नी के साथ प्रातः भ्रमण के लिए अपने घर की कुछ दूरी पर स्थित उद्यान में प्रतिदिन जाया करते थे | यहाँ पर वह तीस मिनिट व्यायाम भी करते थे | करीब एक घंटे की सैर करने के पश्चात् घर लौटते थे |सुबह के अल्पाहार में नींबू की चाय के साथ दो बिस्किट और दो टोस्ट लेते थे | दोपहर को थोडा सा अंकुरित सलाद और छाछ तथा रात्रि के भोजन में दो चपाती बिना घी की और एक तरी वाली सब्ज़ी रहती थी | रात्रि का भोजन आठ बजे तक करने के बाद करीब चालीस मिनट टहलते थे तत्पश्चात नौ बजे तक निद्रा देवी के आगोश में आ जाते थे | बस यही उनकी दिनचर्या थी | सेवानिवृत्ति के पश्चात् भी उनकी इस दिनचर्या में तनिक भी परिवर्तन नहीं आया |

अपने जीवन यात्रा के रथ पर सवार……जीवन यात्रा का आनंद……गंतव्य की प्राप्ति…….कर्म-क्षेत्र व जीवन में महत्त्वपूर्ण उपलब्धियां…….कि जीवन रथ का एक चक्र
चलते-चलते टूट गया……….. वर्मा जी के जीवन में एकाकीपन व निराशा के सघन तमस ने अपना डेरा डाल दिया, जीवन से विरक्ति सी होने लगी……..शरीर नश्वर है और आत्मा अमर है…… इस सत्य को स्वीकारते हुए अपने जीवन से समझौता कर लिया……..| सात वर्षीय नन्हे रोहित को अपने दादा जी से आत्मिक लगाव था…..स्कूल से आने के बाद उसकी नज़रें अपने दादा जी को ढूँढती रहती थीं जब तक वह उनसे मिल नहीं लेता तब तक बेचैन सा रहता था |वह अपने स्कूल से आकर दादा जी के पास जाकर उनसे बातें करता रहता था……प्रतिदिन उनके साथ टहलने भी जाता था क्योंकि दादा जी उसे हर रोज़ एक चोकलेट खरीद कर देते थे…….वर्मा जी को रोहित से बातें करके स्वर्गिक आनंदानुभूति होती थी…….अकेलेपन का भय भी दूर हो जाता था……| चलते-चलते जब दादा जी थक जाते थे तो वहां स्थित ठूंठ को पकड़कर उसका सहारा लेकर थोड़ी देर खड़े रहकर सुस्ताने लगते….और उस ठूंठ की मोटी डाल को पकड़ कर कुछ देर व्यायाम करते और फिर बेंच पर बैठ कर आराम करने लगते…….
रोहित उद्यान में लगे फलों से लदे अन्य वृक्षों को टकटकी बाँध कर देखता तो कभी ठूंठ पकड़े अपने दादाजी को देखता…..
आमों से लदा एक पेड़ उसे अपनी ओर बार-बार आकर्षित कर रहा था…….आखिर बाल मन जो ठहरा और अपने दादा जी से बोला- ” दादा जी , यह पेड़ कितना अच्छा लग रहा है….वो देखो कितने सारे आम लगे हुए हैं इस पर….”
दादा जी ने कहा, ” हाँ बेटा , पेड़ तो बहुत अच्छा है अभी ले….कि….न…….” कहते कहते अपनी बात अधूरी ही छोड़ दी…..
” लेकिन क्या ? दादा जी” रोहित के बाल मन में कुछ आगे जानने की जिज्ञासा हुई|
”हाँ रोहित बेटा इस पेड़ के सारे फल पकने पर तोड़ लिए जायेंगे…….कुछ दिनों बाद जब यह पेड़ बहुत पुराना हो जायेगा तो यह भी सूख जाएगा…… फिर तो यह किसी को भी न फल देगा और न छाया………इसके पास आना भी कोई पसंद नहीं करेगा………
” क्यों दादा जी ” रोहित बोला
“क्योंकि यह तब तक बिलकुल सूख चुका होगा……. उसके बाद यह मेरा साथी बन जायेगा | ” दादा जी ने रोहित से कहा
नन्हा रोहित दादाजी की बात को बड़े ध्यान से सुन रहा था |
अचानक वर्मा जी बेंच से उठे……जैसे उन्हें कुछ याद आ गया हो……एक पेड़ की ओर संकेत करते हुए बोले– ” बेटा रोहित, चलो उस पेड़ के पास चलते हैं…….”
” किस पेड़ के पास दादा जी….! ” नन्हा रोहित बोला
” वो जो सामने ठूंठ सा खड़ा है…..” वर्मा जी ने कहा
“क्यों दादा जी और आपने पेड़ को ठूंठ सा क्यों कहा ?” रोहित ने कहा
“रोहित यह पेड़ मेरा बहुत पुराना साथी है जब यह पेड़ ठूंठ नहीं था हरा भरा था तब मैं तेरी दादी जी और इन्दर के साथ हर रोज़ आया करता था……….मैं और तेरी दादी घंटों इस पेड़ की घनी छाया में बैठे बातें करते रहते…….कभी इन्दर के साथ फुटबॉल खेलता तो कभी आँख मिचौनी…….कभी इन्दर के दोस्त आ जाते तो वह उनके साथ खेलता……उसे भी तेरी तरह बड़ा ही आनंद आता….लेकिन अब तो वह अपने ही कार्यों में व्यस्त है…….उसके पास समय भी नहीं है…..| ” वर्मा जी कहते-कहते अतीत की स्मृतियों की परतों दर परतों में कहीं खो गए……….भावनाओं के सागर में गोते लगाने लगे……..” दादा जी आप क्या सोच रहे हैं?” रोहित ने जैसे उनकी तन्द्रा भंग कर दी……
” अच्छा चल अब घर चलते हैं…….तुझे स्कूल भी जाना है फिर चॉकलेट और जलेबी भी तेरे लिए खरीदनी है |” सुनकर रोहित ख़ुशी के मारे उछल पड़ा…..उसकी मन पसंद चीज़ें जो दादा जी उसे दिलवाते थे…..और तेज़ क़दमों से उनके साथ चलने लगा……|

वर्मा जी ने बगीचे की पास वाली दुकान से अपने पोते के लिए चॉकलेट और जलेबी खरीदी और घर की ओर चल दिए…….घर पहुँच कर रोहित ने अपनी माँ से खुश होकर उन्हें अपनी चॉकलेट और जलेबी दिखाते हुए कहा- ” आज मुझे दादा जी ने यह सब दिलवाया है देखो न दादा जी कितने अच्छे हैं……!” दादाजी के साथ रोहित को देख कर नीना का क्रोध सातवें आसमान पर चढ़ गया……..अपनी आवाज़ पर नियंत्रण खोते हुए नन्हे रोहित पर चिल्लाते हुए बोली-” आ गया तू…..इतनी देर से क्यों आया…..?”
वर्मा जी बात को सँभालते हुए बोले- ” बेटी, रोहित चॉकलेट और जलेबी की जिद कर रहा था इसलिए…..”

” यह रोहित जलेबी की जिद कर रहा था या फिर आपकी जीभ का स्वाद था…….आपको तो हर रोज़ ही कुछ न कुछ नया जीभ के स्वाद के लिए चाहिए…..” नीना क्रोधावेश में आकर बोली
वर्मा जी चुपचाप खून का घूँट पीकर रह गए………मुख से एक शब्द भी न बोल सके…….बस इसी तरह नीना के शब्दों की मार ने उन्हें और मानसिक रूप से पूर्णरूपेण आहत कर दिया था……इन्दर भी कमर तोड़ महंगाई में घर का खर्च चलाने के लिए पैसे की अंधी दौड़ में दिन-रात अपने कार्यों में ही व्यस्त रहता था…..पैसे की अंधी दौड़ ने उसे इतना उन्मत्त कर दिया था कि वह अपने पिता के हालातों से पूर्णतः बेखबर था…..वे तो बस किसी तरह अपने बुढ़ापे के दिन काट रहे थे……!

.चारों ने पास आकर एक स्वर में कहा- ” चूंकि यह ज़मीन बहुत पहले ही बिक चुकी है अब यहाँ पर एक बड़ा शापिंग मॉल बनेगा इसलिए इस ठूंठ को भी काटना है………..”

वर्मा जी को तो जैसे सांप सूंघ गया…….सुनकर अन्दर तक हिल गए…..पलभर तक उनके मुख से एक शब्द भी न निकला…..
रोहित भी दादा जी से पूछ बैठा—” यह ठूंठ क्या होता है इसे क्यों काटना है इन्हें ?”
” बेटा यही पेड़ तो ठूँठ है इसका मतलब में तुम्हें बाद में बताऊँगा……पहले तो में यह देखता हूँ कि ये लोग हैं कौन…….”
उनमें से एक लड़के को वर्मा जी ने पहचान लिया उसके और पास आकर बोले – ” अरे बेटा, तुम तो कर्नल साहब नवनीत के बेटे आशु हो…..”
“जी हाँ और आप…..?” आशु ने कहा
“मैं अखिलेश वर्मा तुम्हारे पापा के बचपन का दोस्त ” वर्मा जी ने कहा
“अरे , आप वर्मा अंकल ” आशु ने तुरंत कहा
” हाँ बेटा ” वर्मा जी ने कहा
” अंकल, आप यहाँ कैसे ? “आशु ने अपनी जिज्ञासा को शांत करने के भाव से पूछा
” बस इस रोहित के साथ मैं यहाँ प्रतिदिन आता हूँ….थोड़ी देर घूमता हूँ….अपने प्रिय साथी इस ठूँठ के साथ व्यायाम करता हूँ…..और रोहित को झम्मन हलवाई कि गरम-गरम जलेबियाँ और कन्फेक्शनरी की दुकान से चॉकलेट दिलवाता हुआ घर जाता हूँ…..” वर्मा जी का हृदय बहुत ही प्रफुल्लित हो रहा था….
” तुम्हारे साथ ये सब कौन हैं ?” अपनी शंका का समाधान करते हुए वर्मा जी ने आशु से पुछा
“अंकल, ये तीनों मेरे मित्र हैं…..इस ठूँठ को काटना है क्योंकि शापिंग मॉल बनाने में यह बाधक बन रहा है…..” आशु ने बड़ी ही विनम्रता पूर्वक कहा
” ये तो मेरे जीवन का साथी है, बेटे…..अभी कुछ दिन और मेरे साथ इसे रहने दो…….मेरा जीवन ही कितना है……और अगर जल्दी ही काटना है तो इस ठूँठ को काटकर मेरे अंतिम संस्कार के लिए रख लेना तब मैं अपने बुढ़ापे के साथी के साथ ही इस संसार से विदा होऊंगा…..!” कहते ही वर्मा जी के नेत्रों से भावुकता की अश्रुधारा अविरल गति से बह उठी…..
” कैसी बातें करते हैं अंकल…. जैसा आप कहेंगे हम लोग वैसा ही करेंगे |” यह कह कर आशु ने अपने मित्रों से उस ठूंठ को काटने से रोक दिया , वर्मा जी को लगा जैसे उन्हें अपने जीवन की सबसे बड़ी सौगात मिल गयी हो और बोले – आशु बेटे, आओ चलो घर पर बैठ कर एक-एक कप चाय पीते हैं | ”
वर्मा जी घर पहुँच कर नीना से बोले – ” बेटी, चार कप चाय तो लाना…. कर्नल साहब का बेटा अपने मित्रों के साथ आया है |”
” अब तो इनके साथ ऐरे-गैरे-नत्थू -खैरे भी आने लगे इन सभी के लिए चाय भी बनानी होगी……नीना झल्लाती हुई अपने कमरे से बाहर निकली……
आशु को समझते देर न लगी…..चाय फिर कभी….अंकल अभी हम लोग चलते हैं…..और वे चारों हवा के झोकें की तरह निकल गए…….और वर्मा जी ने एक गहरी साँस ली और मन के झरोंखे से असंख्य विचारों का आवागमन होता रहा……और उनके नेत्र नींद से बोझिल से हो गए…..तभी रोहित भी दादा जी के पास आकर बैठ गया…..उसे देखते ही उन्होंने उससे कहा- “बेटा रोहित, अब तुझे बताऊँ कि ठूंठ क्या होता है?”
“हाँ दादा जी ” रोहित ने कहा
यह सुनते ही नीना ने वर्मा जी को चाय का कप पकड़ाते हुए रोहित से बोल पड़ी- ” ये क्या बताएँगे ठूंठ क्या होता है यह तो खुद ही ठूंठ हैं…..मैं बताती हूँ…… जो पेड़ बिलकुल सूख जाता है……फल फूल पत्ते रहित होता है….और जिस पर हवा, पानी, बरसात, आँधी का भी कोई प्रभाव नहीं होता है……जो किसी काम का नहीं होता….फालतू जगह घेरे खड़ा रहता है….वही ठूंठ होता है……| अब समझा कि नहीं…..
रोहित सहमी सी आवाज़ में बोला- ” समझ गया मम्मी…!” और नीना पैर पटकती हुई कमरे से बाहर चली गयी….

नीना के ये व्यंग्य बाण तीर की तरह लहराते हुए उनके कानों से जा टकराए……और चाय का कप भी उनके हाथ से छूट गया….और गर्दन एक ओर लटक गयी….. रोहित उन्हें उठाने का बार-बार प्रयत्न करता….दादा जी उठो न …..आपको क्या हो गया…. नन्हे रोहित को कुछ भी समझ नहीं आया क्या हुआ…..उसके दादा जी तो मानसिक पीड़ा के आघात से चिरनिद्रा में लीन हो गए……. .रोहित की आवाज़ सुनकर इन्दर भी वहां आ गया और उन्हें देख कर जडवत ही खड़ा रह गया….

वर्मा जी के निधन का समाचार सुनकर आस-पड़ोस के सभी लोग आने लगे….नीना और इन्दर चिंतित होने लगे……यह खर्चा भी अभी ही आना था…..एक तो इतनी अधिक महंगाई और ऊपर से दाह संस्कार का हजारों रुपयों का खर्च….इन्दर ने नीना से कहा- ” कुछ न कुछ तो प्रबंध करना ही होगा……
आशु ने जब यह दुखद समाचार सुना तो वह भी अपने मित्रों के साथ आ गया….. इन्दर ने उसे नहीं पहचाना…..उसने स्वयं ही अपना परिचय देते हुए कहा- हमने आपके घर के पीछे वाली ज़मीन शापिंग माल बनबाने के लिए खरीदी है……वहां खड़े ठूंठ को दो दिन पहले ही कटवाया है…..अंकल की चिता के लिए उसी ठूंठ की लकड़ियाँ वहां पड़ी हुई हैं बाकी तैयारियां तुम शीघ्र करो……..

वर्मा जी के अंतिम संस्कार की सभी तैयारियां हो चुकी थी……..लकड़ियों से ऊंची चिता बनायीं गयी…उनके पार्थिव शरीर को उस चिता पर रख दिया गया…..इन्दर ने मुखाग्नि दी……देखते देखते उनका शरीर पंचतत्त्व में विलीन हो गया…….ऊंची-ऊंची उठ रही अग्नि की लपटें मानो कह रही हो…. इस संसार में मैं अकेला नहीं था…..मेरे बुढ़ापे का साथी वह ठूंठ भी मेरे साथ रहा ……जिसने मेरे अंतिम समय में भी मेरा साथ दिया……बस अब मैं पूर्ण रूपेण तृप्त हो गया…….!
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