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विधाता की अनुपम कृति

sahity kriti
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जीवन की रंगशाला में माँ एक ऐसी सूत्रधार है जो इस रंगशाला के सभी पात्रों को अंत तक एक दृढ़ सम्मोहन सूत्र में बाँध कर रखती है | उसके न रहने पर उसका दिव्य प्रकाश हमारे इर्द-गिर्द सर्वत्र विकीर्ण होता हुआ सा दृष्टिगत होता है……….
यह रचना ‘सम्मोहन सूत्र ‘ शीर्षक से यहाँ एक बार पूर्व में पोस्ट हो चुकी है आज मदर्स डे के अवसर पर परिवर्तित शीर्षक में पुनः पोस्ट कर रही हूँ…….

माँ ममता दया की मूर्ति !
ईर्ष्या , द्वेष , विराग तनिक नहीं
स्नेह नीर से प्रति पल सींचती
बगिया में मैं उसकी चहकती |
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माँ है ही अति सरस
देती जीवन के सब रस
जब शूल चुभा कहीं
तेरी ही अंक में बैठ मैं रोई |
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बहे जब दृग से अश्रु नीर
अपने ही आँचल से पोंछती
स्नेह सागर उर में लहराता
ममत्व की सघन बौछारें करता |
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स्वेद श्रम की बूंदों से सींच-सींच
तू वात्सल्य नीड़ बनाती
क्षत-विक्षत भी गर मैं होती
तू प्यार के धागों से जोड़ती |
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पिरोये अनमोल मोती तूने एक सूत्र में
बनाया सुन्दर मुक्ताहार जिससे
तेरी श्वासों की निर्मल शीत
जलाती शांति -प्रेम की जोत अभीत |
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हुआ अचंभित पुष्प बगिया का देखकर यह
टूट गया जब सम्मोहन सूत्र चमन का
तृषित दृग तलाशते तुझे जब गगन पार
दीप लहरों में अकस्मात् ही आ जाती तू |
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मन की हर साँसों में एक दृढ़ संकल्प दे जाती
टूटे बिखरे असंख्य चित्रों को सहेज जाती तू |
त्याग,तपस्या,घोर तिरस्कार भी सह जाती तू
निज कर्म ,कर्तव्य पथ को अपनाती चलती |
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आधार शिला स्व संतति के अस्तित्त्व की
माँ तो है प्यार का अपरिमित कोषागार
जिसे वेद पुराणों ने भी किया है बयां
हूँ ऋणी अंत तक जीवन के पथ पर |
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सृष्टि की है अनुपम कृति माँ तू
नहीं तेरे जैसा कोई भी यहाँ
तू तो विधाता की अनुपम कृति……!

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