sahity kriti
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भोर की पहली किरण में ,
उठकर भागता जाता ,
दिन देखता न रात कभी ,
हल लगाता, जोतता खेत भी |
थकित होते प्राण भी
उफ़ न करता तनिक भी ,
देता रत्न निकाल भू से सभी |
ताप शीत कितना भी पड़ता
सहता जाता,
न कोई शिकायत करता
और न शिकवा ,
न कोई कष्ट जताता |
चाहे कोई दे ‘ घास-रोटी या पुआल ‘
सर झुकाए खाता रहता |
पर हुआ जब जर्जर थकित तन
हाल बेहाल हो जाता ,
कोई पास न आता ….
आकर हाल न पूछता
एक जून रोटी-पानी भी ना देता |
मन की आँखें क्यों न निहारती ‘उसको’
जो पीड़ा निहारा करता सब जन में |
है एक अर्ज़ यही …..
कि चाहे कष्ट हो तुम्हें तनिक
पीड़ा तो हरो ‘उस जन’ की भी ,
जिसने अन्न-धन दिया ‘संसार’ को
मिल जाएगा सब तीरथ का पुण्य यहीं…..!
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