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पत्थर और आदमियत

sahity kriti
sahity kriti
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पत्थर का पत्थर से ऐसा अजब रिश्ता ,
जिसे समझ न पाई कभी आदमियता !
उसने हथोड़े की मार से ऐसा तोडा कि…
टुकड़े-टुकड़े हो सब कहीं बिखर जाता |

वाहनों तले दबता, छिटकता जाता ,
अंग अवशेष यहाँ-वहां पड़ा रह जाता |
एक पैरों से ठोकरें व धूल खाता जाता,
तो दूजा मंदिर में फूलों से पूजा जाता |

चलते-चलते वह अपनी राह पकड़ता ,
घोर गर्मी की भीषण तपन सहन करता |
घनघोर वर्षा और झरने की मार भी खाता ,
सीने में उसके छिपा दर्द कोई जान न पाता |

उद्वेलित पत्थर कभी कुछ न बोलता ,
पर बिन बोले अंतर-पीड़ा कह देता |
पत्थर ही पत्थर का दर्द जान पाता,
खूबसूरती से आप बीती सुना जाता |

पत्थर से दूसरा पत्थर जब जुड़ता ,
भव्य महल बन कर खडा हो जाता |
प्रेमी हृदयों का स्मारक, शहीदों की—
प्रतिमूर्ति बन जीवन से रू ब रू कराता !!!

आदमी क्या कभी यह सोचता ????

जुड़कर भी न जुड़ पाता भाई चारे से…..
और न जुड़ पाता खुद आदमियत से ,
विलुप्त हो जाता भौतिक चकाचौंध में |

चलते जाते अपनी राहों पर बेगाने से,
पल  में हो जाते धराशायी रिश्ते सारे |

मानो ढकेल दी गयी हो आदमियत अँधेरे में |
आदमियत अँधेरे में…आदमियत अँधेरे में !!!!!!


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