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माँ …..एक सुखद अनुभूति ….एक विश्वास….अवर्णनीय…..अचल …अखंड…. नितांत निश्छल रिश्ता !!!!!!!!!
माँ सृष्टि की सुन्दर सृजना है…….. ईश्वर की अप्रतिम कृति है …..इस संसार के प्रत्येक स्थान पर हर किसी के पास होती है…..हृदय धरा के कण-कण में ….शरीर के रोम-रोम में बसी है यह कृति !!! जिसके `होने’ का मात्र अहसास भर ही होना अनिवर्चनीय सुखद अनुभूति करा देता है …….माँ में ही अव्यक्त ,अदर्शनीय ईश्वरीय सत्ता विद्यमान है…….. जहाँ ईश्वरीय सत्ता का आभास नहीं है वहाँ माँ है ……… इसी प्रसंग से सम्बंधित गाने से उद्धृत दो पंक्तियाँ मैं यहाँ प्रस्तुत करना चाहूंगी ……
“उसको नहीं देखा हमने कभी …….पर उसकी जरूरत क्या होगी ,
हे माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी ………….”
ऐसी है यह त्याग व स्नेह की प्रतिमूर्ति प्यारी सी माँ जिसके होने या न होने पर असंख्य आशीषों का भण्डार कवच सन्तति को सुरक्षा प्रदान करता है !
अपनी माँ जिसके हम अंश हैं उसका ऋण तो आजीवन नहीं चुका सकते और यदि चुकाने की मात्र कल्पना भर ही कर लेते हैं तो मैं इसे धृष्टता की ही संज्ञा दूँगी | भला हम कैसे उस माँ का ऋण चुका पायेंगे जो हमें इस धरती पर जन्म देने लिए अवर्णनीय और अव्यक्त वेदना से छटपटाई थी……..अमृत सम मधुर दुग्ध का पान कराया था……..भूखी-प्यासी रहकर सबसे पहले हमें भोजन दिया…..रातों रात जाग कर हमें पाल पोस कर बढ़ा किया …….छोटी बड़ी हर आई विपत्तियों का सामना किया …….बड़ी से बड़ी मुसीबतों को झेलकर हर आने वाले कष्टों से हमारी रक्षा की………स्नेह , त्याग ,सहिष्णुता के न जाने कितने प्रतिमान हर रोज़ गढ़ती है………. कैसे चुका पाएंगे उसका ऋण ! नहीं …….कदापि नहीं चुकाने की धृष्टता करूंगी …………उसका ऋण तो प्राण देकर भी उतार पाना संभव नहीं है ………..
उसकी स्मृतियों के तिनके-तिनके किन्तु अतिशय मखमली लम्हें अपने मन मंदिर में अमूल्य धरोहर की भाँति संजोकर रखे हैं……क्या देखना चाहेंगे आप भी उस धरोहर को …….?
आपको भी कुछ देर केलिए स्मृतियों के झरोखों में लिए चलती हूँ जहाँ गवाक्षों से झाँक कर कुछ तो देख सकते हैं ……
“जब हर रोज़ नयी सुबह का शुभारम्भ होता था तब वह ईश्वर की पूजा अर्चना , वन्दना ,मन्त्रों ,श्लोकों और संध्या समय ईश स्तुति .के माध्यम से मेरे उर की बंजर धरा पर संस्कार और सभ्यता का बीजारोपण करती थी………. प्यार से पकाए व सरस भीनी भीनी सुगंध से भरपूर सुस्वाद व्यंजनों में उँडेला गया भरपूर माँ का प्यार ही तो था……….ज्वर से तप्त बदन पर नरम-नरम धैर्य का शीतल आँचल रखती थी ……उसकी प्रार्थनाओं के अश्रूपुष्प झड ही जाते थे……… माँ की डांट में चिंता धारा सहज ही फूट पड़तीं थीं …….. कभी दुखी व अवसन्न होने पर आगे बढ़कर अपने स्नेह – ममता के आँचल में छिपा लेती थी …..यशस्वी ,चिरायु , संस्कारी, , सफल सुख समृद्धि से भरपूर होने की कामना करती थी …..प्रथम गुरु थी वह …..तो श्याम पट्ट, चॉक, कलम , स्याही और नोट बुक थी तो कभी मेरी श्याम-सुंदरी (छड़ी) भी वही थी …… उसकी अप्रतिम सुगंध मेरे रोम-रोम से प्रस्फुटित होती है लेकिन मेरी हर सांस में उसकी दिव्यात्मा की महक आती है ……….l मेरा अस्तित्त्व माँ ही है …..”
भारतीय संस्कृति में वसुधा को माता कहा गया है जो अपने गर्भ से निरंतर बहुमूल्य उपयोगी रत्न (अन्न-धन ) प्रदान करती है व कल्याण दात्री है इसीलिये तो हमारी माँ भी संतान के कल्याणार्थ उसका हित अहित देखती रहती है और उपयोगी वस्तुओं के साथ-साथ अमूल्य जीवन देती है |
भारतीय संस्कृति की पारंपरिक माँ अपने मातृत्व की परंपरा का निर्वाह करती हुई निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करती है |
हर पारंपरिक माँ को समर्पित कुछ पंक्तियां…….
भोर के रवि की उजास में
आजीवन रोशनी की किरणें विकीर्ण करती माँ !
आपत्ति-विपत्ति के शूलों की जड़ें उखाड़ती
ममता ,त्याग सुख का थाल परोसती माँ !
स्नेह की शीतल बौछारों से जीवन सिक्त करती
शुभाशीर्वादों के रक्षा कवच से सदा बचाती माँ !
उर की बंजर भूमि पर संस्कृति के अंकुर उगाती
अटूट विश्वास की आँखों में सोती जागती माँ !
अहर्निश सन्तति के लिए सुख के सपने बुनती
श्रम साध्य कर घर की धुरी पर अनवरत घूमती माँ !
खनखनाती चूड़ियों में जीवन की संगीत लहरी सुनाती
सांझ आने तक निरंतर दीये सी जलती रहती माँ !
अनजानी सी खुली किताब के पन्नों की इबारत होती
जो शब्दों में,वर्णों में भी न समाती कभी न समाती माँ !
शब्दातीत है ……..वर्णातीत है……और है वर्णनातीत माँ !!!!!
बस अब अंत में यही कहना चाहूंगी कि इस धरती पर माँ किसी चमत्कार से कम नहीं ………
मातृत्व धर्म का पालन करने वाली हर माँ को मेरा नमन!
मातृ दिवस पर हर माँ को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं !!!!! .
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