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हिंद देश की भित्ति पर कामली रंग भ्रष्टाचार का,
चढ़े न दूजा रंग अब नेक इंसानी का !
हर गली घर-घर बिकता है ईमान सबका,
यहाँ वहाँ होता क़त्ल ईमानदारी का !
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जहाँ तहाँ लूटता दुशासन लाज पांचाली की,
तो कभी बोली लगती ग्रामीण बाला की |
चढ़ रही आहुति हिंद संस्कृति की,
क्या न होता विदीर्ण वक्षस्थल तेरा….?
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पड़े गर भीम प्रहार सह्य हो वह भी,
सिंहनाद का गर्जन हो कुछ ऐसा ,
कम्पित हो जाये सिंहासन ‘ उसका’
भड़क उठे चिंगारी इक नई आज़ादी की !
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मच जाये क्रांति यत्र तत्र सर्वत्र …..
अर्जुन का गांडीव हुंकारता !
छिड़ जाये महा युद्ध इस नई आज़ादी का,
अब दो नया स्वर अपने सपनों के भारत का !
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जब गूँज उठेंगे सप्त स्वर गगन में !
होगी सृजित कोई नव सृष्टि जग में !!
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जय भारत !
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