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क्या अनमोल उपहार यही (कांटेस्ट)

sahity kriti
sahity kriti
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नाम है पर्यावरण मेरा
आंदोलित हो रहा मन मेरा
प्रकृति को निहार-निहार
हिलोरें ले रहा मन मेरा |
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मन में उठी तरंगें ऐसे
बजने लगा हो कोई साज़ जैसे
अमूल्य निधि हो जीवन की
है प्रकृति का अनमोल उपहार यही !
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विचारों की निर्झरिणी में लगाई एक डुबकी
बाहर निकले तो लगायी जोर की सुबकी |
सर्वतः फैल रहा कैसा यह प्रदूषण
दूषण ने किया दूषित पर्यावरण |
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खरों ने किया खारित मृदु वारि
दरख्तों में लगा कोई घात भारी
झूल रही थीं लताएँ हमारी
सघन वन में कभी |
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मुँह खोले राक्षस खड़ा है यहाँ
जैसे ही वाहनों ने लिया स्टार्ट
निकल पड़ा धूम राक्षस स्मार्ट
हुआ प्रदूषित मैं अकस्मात !
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अरे ! कैसा यह प्रदूषण ?
सोचा भी न था
होंगे यहाँ भी खर ,दूषण !
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ये तरु-पल्लव लताएँ सारे
कर रहे काना-फूसी सारी रातें
हैं ये तो आपस की बातें
कौन जाने यहाँ हमारी मारें !
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खड़ा हुआ कर जोड़ सामने तुम्हारे
न करो शोषण अब जीवन का मेरे
क्या अंत नहीं शोषण का मेरे ?
क्या यही प्रकृति का उपहार मुझे ?
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मन में है अब अरमान यही
कर दूँ आवृत स्वावरण से जग सारा
मेरे ही आवरण से हों वरणीय कुञ्ज सारे
वास करते हों नभ-प्राणी उसमें सारे !
ऐसा रहूँ , पर्यावरण नाम मेरा !!
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